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Saturday, August 18, 2012

शर्मिला टैगोर



शर्मिला टैगोर की गणना अभिजात्य-वर्ग की नायिकाओं में की जाती है। अभिनय की शालीनता तथा मर्यादाओं की लक्ष्मण-रेखा को उलांघने का साहस शर्मिला ने कभी नहीं किया। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर परिवार की समृद्ध परम्पराओं का सफल निर्वाह उन्होंने अपने किरदारों के माध्यम से कर अपने दर्शकों के समक्ष 'लार्जर देन लाइफ' इमेज प्रस्तुत की। यही वजह रही कि रवि बाबू के शांति निकेतन में शिक्षित सत्यजीत राय ने शर्मिला की प्रतिभा को पहचान कर अपनी फिल्म में सर्वप्रथम अवसर दिया। सत्यजीत राय के पारस-स्पर्श से शर्मिला का फिल्म करियर हमेशा शिखर को छूता रहा है।

Sharmila
PR
बंगाल से बॉलीवुड का सफर
जब शर्मिला की मासूम उम्र तेरह साल की थी, तब सत्यजीत राय ने अपनी अपू -त्रयी की तीसरी फिल्म अपूर संसार (1959) में शर्मिला को मौका दिया। अपने श्रेष्ठ अभिनय से वह दुनिया भर में लोकप्रिय हो गईं।

शर्मिला की श्रेष्ठता के कारण रॉय मोशाय ने उसके बॉलीवुड पदार्पण के बावजूद अपनी अगली फिल्मों में उसे अवसर दिए- देवी, नायक, सीमाबद्ध तथा अरण्येर दिने-रात्रि। रॉय के अलावा बांग्ला-फिल्मकार तपन सिन्हा, अजॉय कार और पार्थ चौधुरी ने भी शर्मिला की प्रतिभा का उपयोग अपनी फिल्मों में काम किया है।

बॉलीवुड में भी बांग्ला फिल्मकार शक्ति सामंत ने अपनी रोमांटिक फिल्म कश्मीर की कली (1964) में शर्मिला को विद्रोही कलाकार शम्मी कपूर के साथ पेश किया। शक्ति-दा स्वयं अपराध फिल्मों की केटेगरी से अपनी इमेज बदलना चाहते थे। शर्मिला की ताजगी और गालों में गहरे पड़ने वाले डिम्पलों का हिन्दी दर्शकों ने खुले मन से स्वागत किया।

इसके बाद की सावन की घटा फिल्म में शर्मिला ने बिकनी पहन कर सेंसेशन मचा दिया। एक अंग्रेजी फिल्म पत्रिका के कवर पर बिकनी में छपा शर्मिला का पोज अनेक लोगों को खासकर बंगाल के 'भद्रलोक' को नागवार गुजरा। सेक्स-सिम्बल के रूप में शर्मिला का बॉलीवुड में मार्केटिंग सफल रहा।

उस दौर के दर्शक निम्मी, मीना कुमारी, माला सिन्हा, वहीदा रहमान के परिचित चेहरों से बाहर आकर कुछ नया, कुछ उत्तेजना भरा महसूस करना चाहते थे। शर्मिला ने सिर पर पल्लू धारण करने वाली और ललाट पर बड़ा-सा लाल टीका लगाने वाली नायिकाओं की परम्परा को तोड़ा।

बेहतर डायरेक्टर : बेहतर ट्रीटमेंट
बम्बइया माहौल में शर्मिला भाग्यशाली रही। उन्हें ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्य, शक्ति सामंत, गुलजार तथा यश चोपड़ा जैसे निर्देशकों ने हाथों-हाथ लिया। साथ ही शम्मी कपूर, शशि कपूर, संजीव कुमार, धर्मेन्द्र और राजेश खन्ना जैसे को-स्टार मिले। कुछ फिल्में अमिताभ के साथ भी करने का मौका मिला। अच्छे डायरेक्टर, अच्छे कंटेंट और अच्छे को-स्टार के कारण बॉक्स ऑफिस की पहली डिमांड बन गई।

रूप तेरा मस्ताना
राजेश खन्ना के साथ शर्मिला की जोड़ी काफी लोकप्रिय हुई। फिल्म आराधना, अमर प्रेम तथा सफर फिल्मों के जरिये रजतपट पर प्रेम-प्यार को नए एंगल से परिभाषित किया गया। राजेश खन्ना की परदे की सफलता के पीछे, परदे के पीछे से किशोर कुमार की जादू भरी आवाज का ही यह कमाल था कि वह लाखों दिलों की धड़कन बन गए।

आराधना का यह गीत- 'मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू'- सुनकर देश का युवा दर्शक दीवाना हो गया। राजेश खन्ना का बगैर बटन का गुरु-कुर्ता और सुर्ख लाल कम्बल में लिपटी नायिका। फायर प्लेस में सुर्ख अंगारे और लपटें। ऐसे रोमांटिक माहौल में यह गीत- रूप तेरा मस्ताना- सुनकर तमाम वर्जनाएं टूटने लगी थीं । बिन ब्याही मां के साथ समाज का सौतेला व्यवहार। आराधना में यह सब कुछ था। 1969 की यह सुपरहिट फिल्म थी।

अनुपमा तथा सत्यकाम
धर्मेन्द्र और ऋषिकेश मुखर्जी के साथ शर्मिला की दो फिल्मों ने उनका हिन्दी में संजीदा रूप प्रस्तुत किया। इन फिल्मों को देखकर लगता है कि ये बंगाल में बनी हैं और हिन्दी में डब होकर आई हैं। पिता के दुलार से वंचित अनुपमा को नायक धर्मेन्द्र अपने शब्दों के माध्यम से सांत्वना देकर आत्मीय स्नेह की बौछार करते हैं। नायिका अपनी चुप्पी के जरिये मन की व्यथा-कथा आँखों के द्वारा प्रकट करती है।

इसी तरह फिल्म सत्यकाम स्वतंत्र भारत के ईमानदार सपनों के बिखरने और टूटने की कहानी है। शर्मिला अपने पति का हर कदम पर साथ देती हैं। ऋषिदा की कॉमेडी फिल्म चुपके चुपके शेक्सपीअर के नाटकों के अंदाज वाली फिल्म है। आज तक इस कॉमेडी से आगे निकलने का साहस अनेक कॉमेडी फिल्में नहीं कर पाई हैं।

दिल ढूंढता है...
फिल्म मौसम में शर्मिला की प्रतिभा का भरपूर उपयोग गुलजार ने किया है। कमलेश्वर के उपन्यास 'आगामी अतीत' पर आधारित संजीव कुमार के जीवन में तब भूचाल आ जाता है जब पहले प्रेम की बेटी अचानक नए घर में प्रवेश करती है। परिवार की सुख-शांति के तमाम समीकरण उलटपुलट हो जाते हैं। भूपिंदर द्वारा गाई गजल- दिल ढूंढता है और आशा भोसले की नशीली आवाज में - मेरे इश्क में लाखों लटके तथा मदन मोहन का संगीत फिल्म को यादगार बनाता है।

बासु भट्टाचार्य ने पति-पत्नी के जीवन पर तीन फिल्मों की ट्रायोलॉजी बनाई थी- अनुभव, आविष्कार तथा गृह प्रवेश। इन फिल्मों में विवाह की एनाटॉमी, राजनीति तथा मनोविज्ञान की तलाश है। इस तिकोन के चौथे कोण में आस्था फिल्म भी बाद में आकर जुड़ी थी, मगर सिनेमा पटरी से उतर चुका था। आविष्कार में शर्मिला अपने पति को यह समझाने में सफल रहती है कि विवाह के बंधन जब बिखरने लगे, तो साथ रहना बेमानी है।

बंगला फिल्मों के महानायक उत्तम कुमार के साथ भी शर्मिला ने हिन्दी में अमानुष फिल्म की है। शर्मिला की अपनी समकालीन नायिकाओं- रेखा, हेमा मालिनी, सायरा बानो, वहीदा रहमान और राखी से किसी प्रकार की अस्वस्थ स्पर्धा कभी नहीं रही। क्रिकेटर नवाब पटौदी से शादी के बाद वे ग्लैमर वर्ल्ड में ज्यादा सक्रिय नहीं रही। बच्चों के बड़े होने के बाद उन्होंने कुछ परिपक्व चरित्र भूमिकाएं निभाईं।

शर्मिला फिल्म सेंसर बोर्ड की चेयर परसन भी रही हैं। उनके कार्यकाल में फिल्म सेंसरशिप को उदारता मिली। नतीजे में फिल्मों में किसिंग या बेडरूम-सीन आम होते चले गए। उन्होंने तो एक बार यह स्टेटमेंट जारी किया था कि टेलीविजन पर रात ग्यारह बजे के बाद एडल्ट मूवी दिखाई जा सकती है क्योंकि बच्चे सो जाते हैं। नवाब पटौदी के निधन से वह अकेली जरूर हो गई हैं मगर बेटा सैफ और दो बेटियाँ उनके इर्दगिर्द मौजूद हैं।

प्रमुख फिल्में
अनुपमा (1966), देवर (1966), एन इवनिंग इन पेरिस (1967), आराधना (1969), सत्यकाम (1969), तलाश (1969), सफर (1970), अमर प्रेम (1971), बंधन (1971), छोटी बहू (1971), आविष्कार (1973), दाग (1973), अमानुष (1974), चुपके चुपके, मौसम (1975), नमकीन (1982), दूसरी दुल्हन (1983), न्यूदिल्ली टाइम्स (1985), विरुद्ध (2005), ज्वैलरी बॉक्स (2006), एकलव्य (2007), तस्वीर 8 बाय 10 (2009), मार्निंग वॉक (2009)


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