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Saturday, August 18, 2012

गुरुदत्त



Guru dutt
NDND
अक्‍टूबर का महीना था। मुंबई का मौसम कुछ-कुछ सुहावना हो चला था। ऐसे ही मौसम में देव आनंद और गीता दत्‍त के साथ गुरुदत्‍त ने जाने कितनी रातें मरीन ड्राइव और वर्ली के समुद्र तट पर भटकते हुए गुजारी थीं। लेकिन ये रात उन रातों से थोड़ी अलग थी। पैडर रोड स्थित किराए के एक फ्लैट में गुरुदत्‍त बिलकुल अकेले थे। जिंदगी से आजिज आ चुका एक अकेला, अवसादग्रस्‍त, अतृप्‍त कलाकार। तब कोई नहीं जानता था कि ये रात गुरुदत्‍त के जीवन की आखिरी रात होगी। आधी रात के करीब उन्‍होंने शराब में ढेर सारी नींद की गोलियाँ निगल लीं। रात बीती, सूरज उगा, लेकिन सदी के सबसे महान कलाकार की आत्‍मा का सूरज अस्‍त हो चुका था।

9 जुलाई, 1925 को मैसूर में एक मामूली हेडमास्‍टर और एक साधारण गृहिणी की संतान के रूप में वसंत शिवशंकर पादुकोण का जन्‍म हुआ। माँ की उम्र तब मुश्किल से 13 साल की रही होगी। बालक के लिए जिंदगी के रास्‍ते आसान नहीं थे। शुरू से ही आर्थिक परेशानियाँ और भावनात्‍मक एकाकीपन उसके हमराही रहे। माता-पिता के तनावपूर्ण संबंध, घरेलू दिक्‍कतें और 7 वर्षीय छोटे भाई की असमय मौत। पहले-पहल जिंदगी कुछ इस शक्‍ल में उसके सामने आई। यूँ ही नहीं उसने दुनिया को इतनी बेरहमी से ठुकराया था।

Guru Dutt
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बचपन का वो उदास-गुमसुम बच्‍चा एक दिन ‘प्‍यासा’ के विजय और ‘कागज के फूल’ के असफल निर्देशक ‘सुरेश’ के रूप में हमारे सामने आता है और हम आश्‍चर्यचकित देखते रह जाते हैं। ये मोती यहीं कहीं था, हमारे इर्द-गिर्द, जिसे अब तक कोई देख नहीं पा रहा था।

किसी गहरे कवित्‍व और रचनात्‍मकता के बीज बहुत बचपन से ही उनके भीतर मौजूद थे। बत्‍ती गुल होने पर बालक गुरुदत्‍त दीये की टिमटिमाती लौ के सामने अपनी उँगलियों से दीवार पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाता। उन दिनों यह दोनों छोटे भाइयों आत्‍माराम और देवीदास और इकलौती छोटी बहन ललिता के लिए सबसे मजेदार खेल हुआ करता था।
Guru Dutt
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गुरुदत्‍त एक मेधावी विद्यार्थी थे, लेकिन अभावों के चलते कभी कॉलेज न जा सके। उदयशंकर की नृत्‍य मंडली में उन्‍हें बड़ा रस आता था। 1941 में मात्र 16 वर्ष की आयु में गुरुदत्‍त को उदयशंकर के अल्‍मोड़ा स्थिति इंडिया डांस सेंटर की स्‍कॉलरशिप मिली। पाँच वर्ष के इस वजीफे में प्रति वर्ष 75 रु. मिलने वाले थे, जो उस दौर के हिसाब से बड़ी बात थी। लेकिन यह शिक्षा अधूरी रह गई। पूरी दुनिया उस समय गहरी उथल-पुथल के दौर से गुजर रही थी। भारत में आजादी की लड़ाई जोरों पर थी। द्वितीय विश्‍व युद्ध की शुरुआत हो चुकी थी। उदयशंकर को मजबूरन अपना स्‍कूल बंद करना पड़ा और गुरुदत्‍त घरवालों को ये बताकर कि कलकत्‍ते में उन्‍हें नौकरी मिल गई है, 1944 में कलकत्‍ता चले आए।

लेकिन बेचैन चित्‍त को चैन कहाँ। उसे एक टेलीफोन ऑपरेटर नहीं, ‘प्‍यासा’ और ‘कागज के फूल’ का निर्देशक होना था। उसी वर्ष प्रभात कंपनी में नौकरी करने वे पूना चले आए और यहीं उनकी मुलाकात देवानंद और रहमान से हुई। गुरुदत्‍त ने फिल्‍म ‘हम एक हैं’ से बतौर कोरियोग्राफर अपने फिल्‍मी सफर की शुरुआत की थी। फिर देवानंद की फिल्‍म ‘बाजी’ से निर्देशक की कुर्सी सँभाली। तब उनकी उम्र मात्र 26 वर्ष थी। उसके बाद ‘आर-पार’, ‘सीआईडी’, ‘मि. एंड मिसेज 55’ जैसी फिल्‍में गुरुदत्‍त के फिल्‍मी सफर के तमाम पड़ाव थे, लेकिन वह महान कृति अब भी समय के गर्भ में छिपी थी, जिसे आने वाले तमाम बरसों में भी हिंदी सिनेमा के इतिहास से मिटा पाना मुमकिन न होता।

19 फरवरी, 1957 को ‘प्‍यासा’ रिलीज हुई। यकीन करना मुश्किल था कि ‘आर-पार’ और ‘मि. एंड मिसेज 55’ के टपोरी नायक के भीतर ऐसा बेचैन कलाकार छिपा बैठा है। यह फिल्‍म आज भी बेचैन करती है। जैसा जिंदा संवाद इस फिल्‍म का अपने समय के साथ था, और ‘प्‍यासा’ के बिंबों में जैसे गुरुदत्‍त उस दौर और उसमें इंसानी जिंदगी के तकलीफदेह यथार्थ को रच रहे थे, वैसा उसके बाद फिर कभी संभव नहीं हो सका। सत्‍यजीत रे की सिनेमाई प्रतिभा से इनकार नहीं, लेकिन अपने समय का ऐसा जिंदा चित्रण उन्‍होंने भी नहीं किया है। उनकी अधिकांश फिल्‍में साहित्यिक कृतियों का उत्‍कृष्‍ट सिनेमाई संस्‍करण हैं।

‘प्‍यासा’ के दो वर्ष बाद आई ‘कागज के फूल’, जो बहुत हद तक गुरुदत्‍त की ही असल जिंदगी थी। ‘कागज के फूल’ एक असफल फिल्‍म साबित हुई। दर्शकों ने इसे सिरे से नकार दिया और गुरुदत्‍त फिर कभी निर्देशक की उस कुर्सी पर नहीं बैठे, जिस पर बैठे-बैठे फिल्‍म के नायक सुरेश सिन्‍हा की मौत होती है।
‘कागज के फूल’ भी एक महान फिल्‍म थी। कुछ मायनों में ‘प्‍यासा’ से भी आगे की कृति। गुरुदत्‍त का निर्देशन, अबरार अलवी के संवाद, वी.के. मूर्ति की सिनेमेटोग्राफी और एस. डी. बर्मन का संगीत। दिग्‍गजों का ऐसा संयोजन गुरुदत्‍त के ही बूते की बात थी। इस फिल्‍म की असफलता बहुत चौंकाती नहीं है। हिंदुस्‍तान जैसे देश में शायद यही मुमकिन था। ‘प्‍यासा’ को भी भारत से ज्‍यादा सफलता विदेशों में मिली। फ्राँस की जनता ने जिस पागलपन के साथ ‘प्‍यासा’ का स्‍वागत किया, वह खुद गुरुदत्‍त के लिए भी उम्‍मीद से परे था। गुरुदत्‍त की सिनेमाई समझ और उनके भीतर का कलाकार बेशक महान थे, लेकिन हमारे देश में एक कम उम्र युवक की दुखद मौत उसकी प्रसिद्धि का कारण ज्‍यादा बनी, न कि उसकी अपराजेय प्रतिभा।

गुरुदत्‍त के लिए जीवन बहुत आसान नहीं रहा। भीतर एक अतृप्‍त कलाकार की छटपटाहट थी। बाहर अवसादपूर्ण दांपत्‍य और प्रेम की गहन पीड़ा, तोड़ देने वाला अकेलापन। अकेलेपन के ऐसे ही एक क्षण में उन्‍होंने अपना जीवन खत्‍म कर लिया था। संसार छूट गया और यहाँ के सारे गम भी। लेकिन उन्‍हें जानने वाले ये कभी समझ ही न सके कि अकेलेपन और अवसाद का वह कैसा सघनतम क्षण रहा होगा, जब किसी को दुनिया से छूट जाना ही एकमात्र रास्‍ता जान पड़ा।

एक व्‍यावहारिक और चालबाज दुनिया उन्‍हें नहीं समझ सकती थी। उनके आसपास का कोई व्‍यक्ति उन्‍हें नहीं समझ पाया। ‘कागज के फूल’ की असफलता को गुरुदत्‍त स्‍वीकार नहीं कर सके। उसके बाद भी उन्‍होंने दो फिल्‍में बनाईं, लेकिन निर्देशन का बीड़ा नहीं उठाया। ‘कागज के फूल’ दर्शकों की संवेदना के दायरे में घुसी, लेकिन पहले नहीं, बल्कि गुरुदत्‍त की मौत के बाद। ऐसा भावुकतावाद कोई नई बात नहीं। जीते जी जिसे कोई पहचान नहीं पा रहा था, उसकी मौत ने उसे नायक बना दिया।

‘प्‍यासा’ का विजय यूँ ही नहीं इस दुनिया को ठुकराता। उसकी संवेदना इस दुनिया की समझ से परे है। उसे कोई समझता है तो सिर्फ गुलाबो (प्‍यासा की वेश्‍या) और शांति (कागज के फूल की अनाथ लड़की)।

कई सौ वर्षों की गुलामी झेलने वाले तीसरी दुनिया के एक गरीब मुल्‍क और एक पिछड़ी सामंती भाषा में रचे जा रहे सिनेमा की अपनी वस्‍तुगत सच्‍चाइयाँ थीं। जबकि गुरुदत्‍त इस यथार्थ से बहुत आगे थे। गुरुदत्‍त बेशक अपने वक्‍त से बहुत आगे के कलाकार थे। भारत देश और मुंबईया सिनेमा की जिन सीमाओं के बीच वे अपनी कालजयी कृतियाँ रच रहे थे, वह अपने आप में एक गहरी रचनात्‍मक तड़प को दर्शाती है। वह तड़प, जो जिंदगी के छूटने के साथ ही छूटी। लेकिन शायद पूरी तरह छूटी भी नहीं। अपने पीछे भी वो एक तड़प छोड़ गई। वही तड़प, जो आज भी ‘प्‍यासा’ और ‘कागज के फूल’ देखते हुए हमें अपने भीतर महसूस होती है। एक तड़प, जो सुंदर फूलों की ‘प्‍यास’ में भटक रही है, लेकिन जिसके हिस्‍से आते हैं, सिर्फ ‘कागज के फूल’

* गुरुदत्त का जन्म 9 जुलाई 1925 को हुआ था।
* उनकी प्रारंभिक शिक्षा कलकत्ता में हुई थी।
* पहले उनका नाम वसंत कुमार पादुकोण था।
* गुरुदत्त के पिता का नाम शिवशंकर पादुकोण और माता का नाम वासंती पादुकोण था।
* उनके पिता हेडमास्टर थे। बाद में वे बैंक में काम करने लगे।
* उनकी माता स्कूल में अध्यापिका होने के अलावा लघु कथाएँ भी लिखती थीं। साथ ही वे बंगाली उपन्यासों का कन्नड़ भाषा में अनुवाद करती थीं।
* गुरुदत्त का जब जन्म हुआ तब उनकी माता की उम्र केवल 13 वर्ष थी।
* परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण गुरुदत्त का बचपन अभावों में बीता।
* उनके छोटे भाई शशिधर की सात माह की उम्र में ही मौत हो गई थी, इससे गुरुदत्त बेहद दु:खी हुए थे।
* गुरुदत्त के दो भाई आत्माराम और देवीदास तथा एक बहन ललिता है।
* प्रख्यात निर्देशिक कल्पना लाजिमी उनकी बहन की बेटी हैं।
* कलकत्ता में स्कूली शिक्षा होने के कारण गुरुदत्त बंगाली भाषा अच्छी तरह बोल लेते थे।
* बचपन में गुरुदत्त की दादी जब आरती किया करती थीं, तब दीपक की रोशनी में अपने हाथों की परछाई से गुरुदत्त दीवार पर भिन्न-भिन्न आकृतियाँ बनाया करते थे।
* गुरुदत्त एक अच्छे विद्यार्थी थे, लेकिन परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण कॉलेज नहीं जा सकें।
* गुरुदत्त के अंकल ने 1944 में तीन वर्ष के अनुबंध पर पूना की प्रभात फिल्म कंपनी में उनकी नौकरी लगवाई।
* प्रभात में गुरुदत्त को कोरियोग्राफर के रूप में अनुबंधित किया गया था, लेकिन बाद में उन्हें अभिनेता और सहायक निर्देशक की जिम्मेदारी भी सौंप दी गई।
* यहीं पर गुरुदत्त के दो दोस्त बने- अभिनेता रहमान और देव आनंद। गुरुदत्त और देव आनंद एक ही लाँड्री पर कपड़े देते थे। एक दिन सेट पर देव आनंद ने गुरुदत्त को अपनी शर्ट पहने देखा। जब उन्होंने इस बारे में पूछा तो गुरुदत्त ने कहा कि उनके पास कोई दूसरा शर्ट नहीं था, इसलिए वे लाँड्री वाले से ये शर्ट ले आए। इसके बाद वो अच्छे दोस्त बन गए।
* गुरुदत्त और देव आनंद ने एक-दूसरे से ये वादा किया था कि यदि गुरुदत्त पहले निर्देशक बने तो वे देव को नायक लेंगे और यदि देव निर्माता बने तो गुरुदत्त को निर्देशक के रूप में लेंगे। बाद में देव ने अपना वादा निभाया।
* गुरुदत्त ने 1944 में निर्मित ‘चाँद’ में श्रीकृष्ण का छोटा-सा रोल किया था। 1945 में वे फिल्म ‘लखरानी’ में विश्राम बेडेकर के सहायक निर्देशक बने। 1946 में पीएल संतोषी की फिल्म ‘हम एक हैं’ में वे सहायक निर्देशक के अलावा कोरियोग्राफर भी थे।
* 1947 में प्रभात से गुरुदत्त का अनुबंध समाप्त हुआ। इसके बाद लगभग 10 माह तक वे बेरोजगार रहें।
* इस दौरान गुरुदत्त ने अँग्रेजी भाषा में लिखना शुरू किया। उन्होंने ‘इलेस्ट्रेड वीकली’ में कई लघु कथाएँ लिखी।
* 1947 में गुरुदत्त बॉम्बे चले आएँ और अमिय चक्रवर्ती और ज्ञान मुखर्जी जैसे निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया।
* अपने निर्देशन की शुरूआत गुरुदत्त ने ‘बाज़ी’ (1951) से की थी।
* गुरुदत्त और गीता रॉय की मुलाकात ‘बाज़ी’ फिल्म के गाने के रेकॉर्डिंग के समय हुईं। दोनों में प्यार हुआ और 26 मई 1953 को दोनों ने शादी कर ली।
* 1954 में प्रदर्शित ‘आरपार’ के जरिए गुरुदत्त को निर्देशक के रूप में ख्‍याति मिलीं।
* इसके बाद गुरुदत्त ने मि. एण्ड मिसेस 55 (1955), प्यासा (1957) और कागज के फूल (1959) जैसी शानदार फिल्में बनाईं।
* ‘कागज के फूल’ की असफलता ने गुरुदत्त को तोड़ दिया था। इस फिल्म को बनाने में उन्होंने खूब पैसा लगाया और जमकर मेहनत की।
* ‘कागज के फूल’ भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म थी। इस फिल्म में गुरुदत्त ने शेड और लाइट का जबरदस्त प्रयोग किया है।
* गाने के जरिये फिल्म की कहानी आगे बढ़ाने में गुरुदत्त को महारथ हासिल थी।
* गुरुदत्त अपनी फिल्मों में ज्यादातर क्लोज-अप शॉट लेते थे। उनका मानना था कि 80 प्रति‍शत अभिनय आँखों से किया जाता है।
* गुरुदत्त अपने काम से बेहद कम संतुष्ट होते थे। उन्हें अपने द्वारा बनाई गई हर फिल्म में कुछ ना कुछ कमी दिखाई देती थी। उनकी कई फिल्में इसलिए अधूरी रह गई कि वे उससे संतुष्ट नहीं थे।
* गुरुदत्त द्वारा निर्देशित ‘प्यासा’ को टाइम मैग्जीन ने 100 श्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना है।
* अपनी मृत्यु के पहले गुरुदत्त ने माला सिन्हा से ‘बहारें फिर भी आएँगी’ के बारे में बात करने के लिए समय तय किया था।
* 10 अक्टोबर 1964 को नींद की गोली ज्यादा खाने की वजह से उनकी मौत हो गई। यह अभी तक रहस्य है कि उन्होंने आत्महत्या की या उनकी स्वाभाविक मौत हुई।

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