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Saturday, August 18, 2012

बी.आर. चोपड़ा


Salman
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पाँच नवंबर को लंबे समय से बीमार चल रहे 94 वर्षीय बलदेवराज चोपड़ा ने अपने घर पर अंतिम साँस ली। बलदेवराज को पूरी फिल्म इंडस्ट्री बी.आर. चोपड़ा के नाम से जानती थी। बी.आर. चोपड़ा उन फिल्मकारों में थे, जिनकी फिल्मों में संदेश होता था। वे फिल्म को मनोरंजक इसलिए बनाते थे, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग फिल्म को देखें और उसमें मौजूद संदेश को ग्रहण करें। अपने इस सिद्धांत के साथ बी.आर. ने कभी समझौता नहीं किया और पूरी उम्र इस तरह के सिनेमा के हिमायती रहे।

94 वर्ष के होने के बावजूद वे वर्तमान में बन रही फिल्मों से भलीभाँति परिचित थे और दर्शकों की पसंद-नापसंद से वाकिफ थे। उदाहरण स्वरूप एक किस्सा पेश है। दो-तीन वर्ष पूर्व की बात है। बी.आर. चोपड़ा का पोता अमेरिका में फिल्म निर्देशन का कोर्स कर रहा था। वहाँ उसे एक लघु फिल्म बनाने का प्रोजेक्ट मिला। उसने कहानी लिखकर अपनी माँ को सुनाई, जो बी.आर. चोपड़ा ने भी सुनी।

कहानी सुनने के बाद बी.आर. ने अपने पोते से कहा कि उसकी कहानी अच्छी नहीं है और वह इस पर फिल्म न बनाए। उस नए जमाने के लड़के ने सोचा कि दादाजी के विचार पुराने हो गए हैं और वे वर्तमान फिल्मों को नहीं समझते। उसने अपने दादा की बात न मानते हुए उसी कहानी पर फिल्म बनाई। जब परिणाम घोषित हुआ तो उसकी फिल्म को सबसे अंतिम स्थान मिला।

बी.आर. चोपड़ा का जन्म 1914 में हुआ था। लाहौर यूनिवर्सिटी से उन्होंने अँग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। पढ़ने का उन्हें खूब शौक था और उनके पास ज्ञान का भंडार था। पढ़ाई पूरी होने के बाद फिल्म पत्रकार के रूप में उन्होंने अपना करियर शुरू किया।

1947 में पार्टीशन के समय जो दंगे हुए उसका शिकार बी.आर. चोपड़ा भी हुए। उनका घर जला दिया गया। लाहौर से वे दिल्ली और दिल्ली से मुंबई पहुँचे। उन्होंने ‘सिने हेराल्ड’ नामक फिल्मी पत्रिका का संपादन किया, लेकिन फिल्मों के प्रति उनका प्यार उन्हें फिल्मकार बनने से नहीं रोक सका।

एक पत्रकार जिस तरह अपने लेखों के जरिए लोगों में जागरूकता फैलाता है, उन्हें सचेत करता है, कुछ वैसा ही काम बी.आर. चोपड़ा ने अपनी फिल्मों के जरिए किया। 1951 में अशोक कुमार को लेकर उन्होंने ‘अफसाना’ नामक अपनी पहली फिल्म बनाई। फिल्म सफल रही और इसके बाद बी.आर.चोपड़ा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

उस दौर में फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादा पढ़े-लिखे लोग नहीं थे, बी.आर. चोपड़ा इसके अपवाद थे। वे कभी भी प्रयोग करने से नहीं हिचकिचाए। उन्होंने बोल्ड थीम को अपनी फिल्मों के लिए चुना और फिल्में बनाईं। उन्हें समय से आगे का फिल्मकार भी कहा गया।

1956 में विधवा पुनर्विवाह पर आधारित ‘एक ही रास्ता’ बनाई, जिसे खूब प्रशंसा मिली। बी.आर. फिल्म्स नाम से उन्होंने अपना बैनर स्थापित किया और ‘नया दौर’ (1957) फिल्म बनाई। यह ‍उनके करियर की सबसे सफल और उम्दा फिल्मों में से एक है। इस फिल्म के जरिए उन्होंने मनुष्य को मशीनीकरण के खतरों से आगाह करने की मनोरंजक अंदाज में कोशिश की।

एक गाँव में बस आ जाने से ताँगे वालों की आजीविका पर असर होता है। फिल्म में अंत में दोनों रेस लगाते हैं और ताँगे की जीत होती है। दिलीप कुमार का अभिनय, मधुर संगीत और बी.आर. चोपड़ा के कसे हुए निर्देशन की वजह से यह फिल्म आज भी याद की जाती है। कुछ वर्ष पूर्व इसे रंगीन कर प्रदर्शित किया गया था।

कोर्ट रूम ड्रामा को भी बी.आर. चोपड़ा अपनी फिल्मों में सशक्त तरीके से पेश करते थे। उनकी बनाई गई ‘कानून’ में इस तरह के कई दृश्य थे। गुमराह, इत्तेफाक और धुँध उनकी संस्पेंस और थ्रिलर फिल्में थीं। उस समय बिना गानों की फिल्म बनाने की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था, लेकिन बी.आर. चोपड़ा ने यह साहस कर दिखाया।

गुमराह (1963), हमराज़ (1967), दास्तान (1972), धुँध (1973), इंसाफ का तराजू (1989), निकाह (1982), तवायफ (1985), अवाम (1987) जैसी उनकी फिल्में अलग-अलग विषयों पर होने के साथ-साथ बॉक्स ऑफिस पर भी सफल रहीं।

उनकी पत्नी हमेशा कहा करती थीं कि वे गंभीर फिल्में ही बनाते हैं। हास्य फिल्म क्यों नहीं बनाते? इसके जवाब में 1980 में बी.आर.चोपड़ा ने ‘पति पत्नी और वो’ नामक सफल और हास्य फिल्म बनाई। ‘कल की आवाज’ (1992) उनके द्वारा निर्देशित अंतिम फिल्म थी। उनकी लिखी कहानी पर उनके बेटे रवि चोपड़ा ने 2003 में प्रदर्शित सफल फिल्म ‘बागबान’ बनाई थी।

एक निर्देशक होने के साथ-साथ एक निर्माता के रूप में भी बी.आर. चोपड़ा ने अनेक फिल्मों का निर्माण किया। अपने बेटे ‍रवि चोपड़ा और भाई यश चोपड़ा को उन्होंने फिल्म निर्देशन की बारिकियों से परिचित करवाया।

छोटे परदे के लिए उन्होंने ‘महाभारत’ नामक धारावाहिक बनाया था, जिसे अकल्पनीय सफलता मिली। कई देशों में इसे देखा गया। भारत में जब इसका प्रसारण होता था, तो बाजार सूने हो जाया करते थे। उन्होंने अपने बैनर तले टीवी के लिए कई कार्यक्रम बनाए।

बी.आर. चोपड़ा का करियर बेहद लंबा रहा। वे फिल्म उद्योग में आए अच्छे-बुरे परिवर्तनों के साक्षी रहे। कर्म को उन्होंने हमेशा प्राथमिकता दी। शायद इसलिए जब उनके बैनर द्वारा निर्मित फिल्म शुरू होती है, तो पार्श्व में श्लोक गूँजता है- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ इस कर्मनायक को श्रद्धांजलि।
B.R. Chopra
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निर्देशक के रूप में 
कल की आवाज (1992)
अवाम (1987)
तवायफ (1985)
निकाह (1982)
इंसाफ का तराजू (1980)
‍पति पत्नी और वो (1980)
कर्म (1977)
धुँध (1973)
दास्तान (1972)
हमराज़ (1967)
गुमराह (1963)
कानून (1961)
साधना (1958)
नया दौर (1957)
एक ही रास्ता (1956)
चाँदनी चौक (1954)
शोले (1953)
अफसाना (1951)

निर्माता के रूप में
बाबुल (2006)
बागबान (2003)
कल की आवाज़ (1992)
प्रतिज्ञाबद्ध (1991)
अवाम (1987)
दहलीज़ (1986)
किराएदार (198)
आज की आवाज (1984)
मज़दूर (1983)
निकाह (1982)
अग्निपरीक्षा (1982)
इंसाफ का तराजू (1980)
द बर्निंग ट्रेन (1980)
पति पत्नी और वो (1980)
कर्म (1977)
छोटी-सी बात (1976)
ज़मीर (1975)
धुँध (1973)
दास्तान (1972)
आदमी और इंसान (1970)
इत्तेफाक (1969)
हमराज़ (1967)
गुमराह (1963)
धर्मपुत्र (1962)
कानून (1961)
धूल का फूल (1959)
साधना (1958)
नया दौर (1957)

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