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Saturday, August 18, 2012

रवीन्द्र जैन




रवीन्द्र जैन हिन्दी सिनेमा के ऐसे संगीतकार हैं जिन्होंने मन की आँखों से दुनियादारी को समझा। सरगम के सात सुरों के माध्यम से उन्होंने जितना समाज से पाया, उससे कई गुना अधिक अपने श्रोताओं को लौटाया। वे मधुर धुनों के सर्जक होने के साथ गायक भी रहे और अधिकांश गीतों की आशु रचना भी उन्होंने कर सबको चौंकाया है। मन्ना डे के दृष्टिहीन चाचा कृष्णचन्द्र डे के बाद रवीन्द्र जैन दूसरे व्यक्ति हैं जिन्होंने दृश्य-श्रव्य माध्यम में केवल श्रव्य के सहारे ऐसा इतिहास रचा, जो युवा-पीढ़ी के लिए अनुकरणीय बन गया है।

पिता पंडित इन्द्रमणि जैन तथा माता किरणदेवी जैन के घर 28 फरवरी 1944 को अलीगढ़ में रवीन्द्र जैन का जन्म हुआ। अपने 7 भाइयों तथा 1 बहन में उनका क्रम चौथा है। जन्म से उनकी आँखें बंद थीं जिसे पिता के मित्र डॉ. मोहनलाल ने सर्जरी से खोला। साथ ही यह भी कहा कि बालक की आँखों में रोशनी है, जो धीरे-धीरे बढ़ सकती है, लेकिन इसे कोई काम ऐसा मत करने देना जिससे आँखों पर जोर पड़े।

एक भजन : एक रुपया
पिता ने डॉक्टर की नसीहत को ध्यान में रखकर संगीत की राह चुनी जिसमें आँखों का कम उपयोग होता है। रवीन्द्र ने अपने पिता तथा भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर मन की आँखों से सब कुछ जानने-समझने की सफल कोशिश की। बड़े भाई से आग्रह कर अनेक उपन्यास सुने। कविताओं के भावार्थ समझे। धार्मिक-ग्रंथों तथा इतिहास-पुरुषों की जीवनियों से जीवन का मर्म समझा।

वे बचपन से इतने कुशाग्र बुद्धि के थे कि एक बार सुनी गई बात को कंठस्थ कर लेते, जो हमेशा उन्हें याद रहती। परिवार के धर्म, दर्शन और अध्यात्ममय माहौल में उनका बचपन बीता। वे प्रतिदिन मंदिर जाते और वहाँ एक भजन गाकर सुनाना उनकी दिनचर्या में शामिल था। बदले में पिताजी एक भजन गाने पर 1 रुपया इनाम भी दिया करते थे।

शरारतें, शरारतें और शरारतें
रवीन्द्र भले ही दृष्टिहीन रहे हों, मगर उन्होंने बचपन में खूब शरारतें की हैं। परिवार का नियम था कि सूरज ढलने से पहले घर में कदम रखो और भोजन करो। रवीन्द्र ने इस नियम का कभी पालन नहीं किया। रोज देर रात को घर आते। पिताजी के डंडे से माँ बचाती। उनके कमरे में पलंग के नीचे खाना छिपाकर रख देतीं ताकि बालक भूखा न रहे।

अपनी दोस्त मंडली के साथ रवीन्द्र गाने-बजाने की टोली बनाकर अलीगढ़ रेलवे स्टेशन के आसपास मँडराया करते थे। उनके दोस्त के पास टिन का छोटा डिब्बा था जिस पर थाप लगाकर वे गाते और हर आने-जाने वाले का मनोरंजन करते थे। एक दिन न जाने क्या सूझी कि डिब्बे को सीधा कर दिया। उसका खुला मुँह देख श्रोता उसमें पैसे डालने लगे। चिल्लर से डिब्बा भर गया। घर आकर उन्होंने माँ के चरणों में चिल्लर उड़ेल दी।

पिताजी ने यह देखा तो गुस्से से लाल-पीले हो गए और सारा पैसा देने वालों को लौटाने का आदेश दिया। अब परेशानी यह आई कि अजनबी लोगों को खोजकर पैसा कैसे वापस किया जाए? दोस्तों ने योजना बनाई कि चाट की दुकान पर जाकर चाट-पकौड़ी जमकर खाई जाए और मजा लिया जाए।

सपनों का नगर कलकत्ता
रवीन्द्र ने कलकत्ता तथा वहाँ के रवीन्द्र-संगीत के बारे में काफी सुन रखा था। ताऊजी के बेटे पद्म भाई ने वहाँ चलने का प्रस्ताव दिया, तो फौरन राजी हो गए। पिताजी ने पचहत्तर रुपए जेबखर्च के लिए दिए। माँ ने कपड़े की पोटली में चावल-दाल बाँध दिए। कानपुर स्टेशन पर भाई के साथ नीचे उतरे, तो ट्रेन चल पड़ी। पद्म भाई तो चढ़ गए। रवीन्द्र ने भागने की कोशिश की। डिब्बे से निकले एक हाथ ने उन्हें अंदर खींच लिया। उस अजनबी ने कहा कि जब तक भाई नहीं मिले, हमारे साथ रहना।

फिल्म निर्माता राधेश्याम झुनझुनवाला के जरिए रवीन्द्र को संगीत सिखाने की एक ट्‌यूशन मिली। मेहनताने में चाय के साथ नमकीन समोसा। पहली नौकरी बालिका विद्या भवन में 40 रुपए महीने पर लगी। इसी शहर में उनकी मुलाकात पं. जसराज तथा पं. मणिरत्नम्‌ से हुई। नई गायिका हेमलता से उनका परिचय हुआ। वे मिलकर बांग्ला तथा अन्य भाषाओं में धुनों की रचना करने लगे।

हेमलता से नजदीकियों के चलते उन्हें ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग कम्पनी से ऑफर मिलने लगे। एक पंजाबी फिल्म में हारमोनियम बजाने का मौका मिला। सार्वजनिक मंच पर प्रस्तुति के 151 रुपए तक मिलने लगे। इसी सिलसिले में वे हरिभाई जरीवाला (संजीव कुमार) के संपर्क में आए। कलकत्ता का यह पंछी उड़कर मुंबई आ गया।

सन्‌ 1968 में राधेश्याम झुनझुनवाला के साथ मुंबई आए तो पहली मुलाकात पार्श्वगायक मुकेश से हुई। रामरिख मनहर ने कुछ महफिलों में गाने के अवसर जुटाए। नासिक के पास देवलाली में फिल्म 'पारस' की शूटिंग चल रही थी।

संजीव कुमार ने वहाँ बुलाकार निर्माता एनएन सिप्पी से मिलवाया। रवीन्द्र ने अपने खजाने से कई अनमोल गीत तथा धुनें एक के बाद एक सुनाईं। श्रोताओं में शत्रुघ्न सिन्हा, फरीदा जलाल और नारी सिप्पी थे। उनका पहला फिल्मी गीत 14 जनवरी 1972 को मोहम्मद रफी की आवाज में रिकॉर्ड हुआ।

संगीत के सौदागर
रामरिख मनहर के मार्फत राजश्री प्रोडक्शन के ताराचंद बड़जात्या से मुलाकात रवीन्द्र के फिल्म करियर को सँवार गई। अमिताभ बच्चन, नूतन अभिनीत 'सौदागर' में गानों की गुंजाइश नहीं थी। उसके बावजूद रवीन्द्र ने गुड़ बेचने वाले सौदागर के लिए मीठी धुनें बनाईं, जो यादगार हो गईं। यहीं से रवीन्द्र और राजश्री का सरगम का कारवाँ आगे बढ़ता गया। 'तपस्या', 'चितचोर', 'सलाखें', 'फकीरा' के गाने लोकप्रिय हुए और मुंबइया संगीतकारों में रवीन्द्र का नाम स्थापित हो गया। 'दीवानगी' के समय सचिनदेव बर्मन बीमार हो गए तो यह फिल्म उन्होंने रवीन्द्र को सौंप दी।

एक महफिल में रवीन्द्र-हेमलता गा रहे थे। श्रोताओं में राज कपूर भी थे। 'एक राधा एक मीरा दोनों ने श्याम को चाहा' गीत सुनकर राज कपूर झूम उठे, बोले- 'यह गीत किसी को दिया तो नहीं?' पलटकर रवीन्द्र जैन ने कहा, 'राज कपूर को दे दिया है।' बस, यहीं से उनकी एंट्री राज कपूर के शिविर में हो गई। आगे चलकर 'राम तेरी गंगा मैली' का संगीत रवीन्द्र ने ही दिया और फिल्म तथा संगीत बेहद लोकप्रिय हुए।

नौवें दशक से हिन्दी सिनेमा के गीत-संगीत का पतन प्रारंभ हुआ। नए गीतकार-संगीतकारों के समीकरण में काफी उलटफेर हुए। रवीन्द्र ने अपने को पीछे करते हुए संगीत सिखाने की अकादमी के प्रयत्न शुरू किए। वे मध्यप्रदेश शासन के सहयोग से यह अकादमी कायम करना चाहते हैं।

लोकप्रिय गीत
गीत गाता चल, ओ साथी गुनगुनाता चल (गीत गाता चल- 1975)
जब दीप जले आना (चितचोर- 1976)
ले जाएँगे, ले जाएँगे, दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे (चोर मचाए शोर- 1973)
ले तो आए हो हमें सपनों के गाँव में (दुल्हन वही जो पिया मन भाए- 1977)
ठंडे-ठंडे पानी से नहाना चाहिए (पति, पत्नी और वो- 1978)
एक राधा एक मीरा (राम तेरी गंगा मैली- 1985)
अँखियों के झरोखों से, मैंने जो देखा साँवरे (अँखियों के झरोखों से- 1978)
सजना है मुझे सजना के लिए (सौदागर- 1973)
हर हसीं चीज का मैं तलबगार हूँ (सौदागर- 1973)
श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम (गीत गाता चल- 1975)
वृष्टि पड़े टापुर टूपुर (पहेली- 1977)
सुन सायबा सुन, प्यार की धुन (राम तेरी गंगा मैली- 1985)




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